ख़ुद को इस शहर में तन्हा भी नहीं कह सकते
और किसी शख़्स को अपना भी नहीं कह सकते
अपनी क़ुर्बत में भी तू ने हमें प्यासा रक्खा
हम तो दरिया तुझे दरिया भी नहीं कह सकते
किस के सज्दों में झुकें किस से दु'आएँ माँगें
हर किसी को तो मसीहा भी नहीं कह सकते
गाँव में आज भी लगता है वो घर है अपना
उस की मिट्टी को तो मलबा भी नहीं कह सकते
ज़िंदगी एक तमाशा है मगर क्या कीजे
इस तमाशे को तमाशा भी नहीं कह सकते
रोज़ आईने में मिलता है नए ज़ख़्म लिए
एक चेहरा जिसे चेहरा भी नहीं कह सकते
0 टिप्पणियाँ
Thanks For commenting